नमन उन शहीदों को….


आज दो वर्ष हो गए उस दुर्दांत अपराध के जिसने हमारे 44 जांबाजों को शहादत की नींद में सदा के लिए सुला दिया था। पूरा विश्व जब प्रेम दिवस के रूप में प्यार को विभिन्न तरीकों से परिभाषित करने में मशगूल था, तब सिर्फ उन 44 परिवारों पर ही नहीं बल्कि पूरे देश में मातम का पहाड़ टूट पड़ा और दिल रो रोकर भी बस एक ही रट लगाता रहा कि अब बहुत हुआ। बहुत निभाया दोस्ती और पड़ोसी का धर्म, अब वक्त नजदीक आ चुका है जब उन भूखों और नंगों की फौज को सबक सिखाया जाए, हिन्दुस्तान के धर्म का एक अलग रूप से भी उसे अवगत कराया जाए।

हम महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा दिए हैं, उनके आदर्शों को सर्वोपरि मानते हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम नेताजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे बलिदानियों को भूल गए हैं। वो वक्त था जब पूरे देश से सिर्फ एक ही आवाज आ रही थी कि कुछ वक्त के लिए अगर बापू को असहयोग आंदोलन रोकना पड़े तो पड़े लेकिन इन दो कौड़ी के देश को एहसास दिलाना नितांत जरूरी है कि ऐसे हालात में गरम दल का रवैया कैसा रहता था। यह जरूरी नहीं कि हम सिर्फ गांधीवादी विचारधारा के प्रचारक हैं, हालाकि आज़ादी के बाद से आजतक ऐसा ही देखने को मिला कि हमारा देश इस कदर गांधीवादी होता चला गया कि हमारे जवानों की शहादत पर सिर्फ बेबस लाचार की तरह आंसू बहाकर हम अपने दर्द को धीरे धीरे भूल जाते रहे हैं।

हमारा एक सिद्धांत है कि एक अपराधी छूट जाए तो कोई बात नहीं लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए, और हमें गर्व है ऐसे संवैधानिक सिद्धांतो पर लेकिन इसका दुरुपयोग इस कदर हुआ कि अजहर जैसे आतंकी को हमें छोड़ना पड़ा ताकि कुछ निर्दोष लोगों की जिंदगी बचाई जा सके। लेकिन इस सिद्धांत के समस्त बिंदुओं को जोड़कर देखने पर मालूम पड़ता है कि आखिर निर्दोष की जानें जाती ही है, भले वो जानें सफेद कॉलर वाले के बदले वर्दीधारी की हो। इसमें कोई विवाद नहीं कि हमारी ढुलमुल रवैया ही उन दुर्दांत आतंकियों के कायराना हरकत का मनोबल बढ़ाता रहा। उसे पता था कि ऐसी वारदात के बाद कुछ दिनों तक क्रिकेट बंद हो जाएगा, कुछ सितारों को वॉलीवुड में काम मिलना बन्द हो जाएगा, न्यूज़ चैनलों और अखबारों में बाद विवाद होगा और एक बार फिर से हम दोस्ती का पैगाम लेकर हाथ आगे बढ़ाएंगे और देश में बैठे कुछ गद्दारों की टुकड़ी की तरफ से आवाज उठने लगेगी कि हमें वार्ता करनी चहिए। मुझे आज तक एक बात समझ में नहीं आई कि हम पाकिस्तान से किस विषय पर बातचीत करते रहे हैं।

लेकिन अब वो बेबसी का आलम नहीं था। देश के शहीदों के विधवाओं और अनाथ बच्चों, अपने बुढ़ापे का लाठी खो चुके बुजुर्ग माता-पिता को गांधी के गृह नगरी से आए प्रधानमंत्री से उम्मीद था और पूरा देश इस उम्मीद में ही जीने लगा कि अभी सबक सिखाने का वक्त आ गया है और देश की सरकार ने उन उम्मीदों को साकार कर ये सख्त संदेश दिया कि हमारी शहादत अब सिर्फ बेबसी से सही नहीं जाएगी। हम अक्सर इस दलील को हवा देते हैं कि शांति से हर समस्या का समाधान निकल ही जाता है लेकिन कुछ समस्याएँ ऐसी भी होती है जिसका समाधान बातचीत नहीं बल्कि डर होता है, और इस समस्या का समाधान डर पैदा कर ही निकाला जा सकता था और हुआ भी।

आज हम उन तमाम वीरों को नमन करते हैं जिन्होंने अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान देकर भी अपनी माटी की सुरक्षा सुनिश्चित किया। हमारी संवेदनाएं है उन समस्त माताओं और बहनों के प्रति जिन्होंने अपने सुहाग या बेटे को खोया है, उन बच्चों के प्रति जिसके सर से पिता का हाथ उठ गया।

Disclaimer: केवटराज की भक्ति तो अतुलनीय है। उनकी भक्ति की तुलना एक व्यंग्य मात्र है।